उतराखंड की प्राचीन जातियां
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उत्तराखंड की प्राचीन जातियां
उत्तराखंड का भू-भाग अत्यंत प्राचीन काल से मानव निवास का केंद्र रहा है। इसकी भौगोलिक परिस्थितियाँ, जलवायु, पर्वतीय भू-आकृति और प्राकृतिक संसाधन मानव जीवन के लिए अनुकूल रहे हैं। इस प्रदेश को वेदों, महाभारत, रामायण और पुराणों में “केदारखंड”, “मानसखंड”, “हिमवंत प्रदेश” तथा “देवभूमि” के नामों से संबोधित किया गया है।
यहाँ विभिन्न युगों में अनेक जातियाँ और जनसमुदाय निवास करते रहे जिन्होंने उत्तराखंड की सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक संरचना को आकार दिया। इन जातियों में प्रमुख हैं — कोल, किरात, खस, नाग, आर्य, भोटिया, शौका, राजी और थारू।
1. कोल जनजाति:
कोल जनजाति उत्तराखंड की सबसे प्राचीन जनजातियों में से एक मानी जाती है। यह जनजाति प्रागैतिहासिक काल में इस क्षेत्र में निवास करती थी।
कोल लोग शिकारी और फल-संग्राहक जीवन व्यतीत करते थे तथा पत्थर के औजारों का उपयोग करते थे। धीरे-धीरे इन लोगों ने कृषि और पशुपालन अपनाया। ये लोग वनों और पर्वतीय क्षेत्रों में रहते थे और प्रकृति पूजक थे।
सूर्य, वृक्ष और पर्वत इनकी पूजा के मुख्य प्रतीक थे। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान में उत्तराखंड की कुछ जनजातियाँ जैसे थारू, बोक्सा और रांजी इन्हीं कोल जनों की वंशज हैं।
2. किरात जनजाति:
किरात जनजाति उत्तराखंड की एक महत्वपूर्ण प्राचीन जनजाति थी, जिसका उल्लेख महाभारत और पुराणों में मिलता है। भगवान शिव ने अर्जुन को “किरात रूप” में दर्शन दिए थे, जिससे इनका धार्मिक महत्व भी स्पष्ट होता है।
किरात लोग मुख्यतः उत्तराखंड की ऊँची घाटियों, विशेषकर गढ़वाल और कुमाऊँ क्षेत्र में बसे हुए थे। इनका मुख्य व्यवसाय शिकार, मछली पकड़ना और पशुपालन था। ये लोग प्रकृति, नदियों और पर्वतों की पूजा करते थे।
किरातों की भाषा और संस्कृति ने आगे चलकर हिमालयी भाषाओं और परंपराओं को गहराई से प्रभावित किया। वर्तमान में नेपाल और सिक्किम के कुछ समुदाय जैसे लिम्बू, गुरूंग, लेपचा आदि को किरात वंशज माना जाता है।
3. खस जनजाति:
खस जनजाति उत्तराखंड की सर्वाधिक प्रभावशाली और प्राचीन जनजातियों में से एक रही है। इनका उल्लेख वेदों, मनुस्मृति और महाभारत में मिलता है। खस लोग उत्तराखंड के मध्य पर्वतीय भागों में बसे हुए थे और धीरे-धीरे उन्होंने यहाँ राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित किया।
इनका मुख्य व्यवसाय कृषि, पशुपालन और धातु-कार्य था। खस लोग प्रारंभ में आर्येतर जाति माने जाते थे, किंतु बाद में आर्य संस्कृति के प्रभाव में आकर उन्होंने ब्राह्मणवादी परंपराएँ अपना लीं।
खस भाषा ने आगे चलकर कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषाओं के विकास में योगदान दिया। कत्यूरी वंश और बाद के स्थानीय शासक खस जाति से ही संबंधित माने जाते हैं।
4. नाग जाति:
नाग जाति का उल्लेख पुराणों और महाभारत में मिलता है। ये लोग सर्प पूजा के अनुयायी थे और उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते थे। नागों को पर्वतों और जलस्रोतों के रक्षक के रूप में माना जाता था।
उत्तराखंड के अनेक स्थान जैसे नागराज, नागथात, नागनाथ आदि इनके प्रभाव की याद दिलाते हैं। नाग संस्कृति का गहरा प्रभाव आज भी गढ़वाल और कुमाऊँ की धार्मिक परंपराओं में देखा जा सकता है। नाग पूजा, शिव उपासना और सर्प प्रतीक आज भी यहाँ की सांस्कृतिक धारा में विद्यमान हैं।
5. आर्य जनजाति:
वैदिक काल में आर्यों का आगमन उत्तराखंड के मैदानों और घाटियों में हुआ। हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून, यमुनोत्री और गंगोत्री क्षेत्र में वैदिक सभ्यता का विस्तार हुआ।
ऋषि-मुनियों ने यहाँ अनेक आश्रमों की स्थापना की जैसे कपिल मुनि का आश्रम (कनखल), वशिष्ठ और विश्वामित्र के आश्रम (ऋषिकेश), तथा व्यास मुनि का आश्रम (बद्रीनाथ)।
आर्य जनजातियों ने वेद, यज्ञ और तपस्या की परंपरा को इस प्रदेश में विकसित किया। गंगा और यमुना नदियों की देवी रूप में पूजा आर्य संस्कृति की देन है, जिसने आगे चलकर उत्तराखंड को “देवभूमि” की पहचान दिलाई।
6. भोटिया जनजाति:
भोटिया जनजाति उत्तराखंड की सीमांत जनजातियों में से है जो तिब्बत से सटे क्षेत्रों में निवास करती है। ये लोग मुख्यतः पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी जिलों के ऊँचाई वाले क्षेत्रों में रहते हैं।
भोटिया समुदाय के प्रमुख उपसमूह हैं — जौहारी, दारमा, व्यांसी, छूंगपा और तोली। इनका प्रमुख व्यवसाय भारत-तिब्बत व्यापार था, जिसमें ये नमक, ऊन और ऊनी वस्त्रों का व्यापार करते थे।
भोटिया लोग बौद्ध धर्म और हिंदू परंपराओं का मिश्रण मानते हैं। इनकी प्रमुख आराध्य देवी नन्दा देवी और लातू देवता हैं। भोटिया समाज की अपनी विशिष्ट वेशभूषा, रीति-रिवाज और लोककला है।
7. शौका जनजाति:
शौका जनजाति, जिसे जौहारी या रं समुदाय भी कहा जाता है, मुख्य रूप से पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी, धारचूला, दारमा, व्यास और चौंदास घाटियों में निवास करती है।
इनका मुख्य व्यवसाय याक पालन, ऊन और नमक का व्यापार तथा हस्तशिल्प निर्माण रहा है। शौका समुदाय की भाषा पर तिब्बती प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
इनकी धार्मिक मान्यताएँ बौद्ध और हिंदू परंपराओं का मिश्रण हैं। देवी नन्दा देवी को परिवार की रक्षक देवी माना जाता है। भारत-तिब्बत व्यापार में शौका जनजाति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
8. राजी या वनरावत जनजाति:
राजी या वनरावत जनजाति उत्तराखंड की अत्यंत लघु और विलुप्तप्राय जनजातियों में से है। ये मुख्यतः पिथौरागढ़, चंपावत और अल्मोड़ा जिलों के वनों में निवास करते हैं।
राजी लोग घुमंतू जीवन जीते हैं और इनका मुख्य व्यवसाय शिकार, शहद संग्रह और लकड़ी से वस्तुएँ बनाना है। बाँस और लकड़ी से बने औज़ार, टोकरियाँ और अन्य हस्तशिल्प इनके जीवन का अंग हैं।
राजी भाषा (जिसे ‘बात्या’ भी कहा जाता है) विलुप्तप्राय है। यह जनजाति भारत की सबसे कम जनसंख्या वाली जनजातियों में से एक है और इसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है।
9. थारू जनजाति:
थारू जनजाति उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में निवास करती है, विशेषकर उधमसिंह नगर, नैनीताल और चंपावत जिलों में।
इनका मुख्य व्यवसाय कृषि, पशुपालन और मत्स्य पालन है। थारू समाज में महिलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
इनकी संस्कृति में लोकगीत, लोकनृत्य और रंगीन परिधान प्रमुख हैं। थारू समाज हिंदू देवी-देवताओं की पूजा के साथ-साथ ग्रामदेवताओं और पूर्वजों की भी आराधना करता है।
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व:
उत्तराखंड की इन प्राचीन जातियों ने प्रदेश की सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान को गहराई से प्रभावित किया। पर्वत, नदी और वृक्ष पूजन की परंपरा इन्हीं जनजातियों से प्रारंभ हुई।
कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषाएँ खस और किरात भाषाई परंपरा से विकसित हुईं।
राजनीतिक रूप से खस जाति ने कत्यूरी वंश की स्थापना कर उत्तराखंड में शासन परंपरा की नींव रखी। आर्य और आदिवासी संस्कृतियों के मिश्रण से उत्तराखंड का समाज “देवभूमि” की पहचान के रूप में उभरा।
महत्वपूर्ण तथ्य:
प्राचीन उत्तराखंड की जनजातियाँ केवल मानव समूह नहीं थीं, बल्कि वे इस क्षेत्र की सभ्यता, संस्कृति और धर्म की आधारशिला थीं। कोल और किरात से लेकर खस और आर्यों तक की यात्रा उत्तराखंड के मानव समाज के विकास का प्रतीक है।
इन जनजातियों ने इस प्रदेश की धार्मिक आस्था, लोककला, भाषा, और जीवनशैली को आकार दिया, जो आज भी उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान में गहराई से निहित है।
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